पं. जवाहरलाल नेहरु मानते थे कि-"जो विचार कार्यरूप में नहीं बदलते, उनका कोई मूल्य नहीं है। इसी तरह ऐसे कार्य जो विचार पर आधारित नहीं हैं, अस्त-व्यस्तता एवं अराजकता में गिने जाते हैं।” समुचित जीवन-व्यवहार के लिए कार्यकुशलता ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ मानवीय करुणा भी होना चाहिए। किसी भी तरह से लाभ की कामना शोषण का मार्ग है। आज विज्ञान और तकनीक के प्रचार ने धर्म एवं परम्परा के नाम पर चल रहे अंधविश्वास और शारीरिक, मानसिक, आर्थिक शोषण से बचाया है। अब धर्म का आधार वाचनिक प्रतिष्ठा और मानवीयता का पक्ष लेकर उभर रहा है। हमें सांस्कृतिक दारिद्र और शून्यता से बचना चाहिए। आज सब कुछ अर्थ की आँख से देखा जाने लगा है'चाणक्य' के समय राजनीति को अर्थशास्त्र कहते थे। आज अर्थशास्त्र का शिकार राजनीति है। सत्ता और संसद को प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष अर्थशास्त्री चला रहे हैं। कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए राजनैतिक निर्णय हो रहे हैं भले ही उसमें श्रमिकों या उपभोक्ताओं की हानि होती हो। आज औद्योगिक क्षेत्र में ही दलाल नहीं हैं बल्कि सत्ता के क्षेत्रों में भी दलाल सक्रिय हैं, सांस्कृतिक-साहित्यिक क्षेत्र भी इनसे अछूता नहीं है। वर्तमान में भोगवाद की स्थिति बढ़ रही है, जिससे आगाह करने की आवश्यकता है। 'भक्तिकाल' में कबीर ने कहा
थामन राजा नायक भया, टांडा लादा जाय।
है है है है है रही, पंजी गयी बिलाय।।
अर्थात् इन्द्रियों का राजा मन व्यापारी बन गया और वह अपने विषय भोग की सामग्री (सम्पत्ति) गाड़ी में लादकर चल दिया। लोग उसे देखकर कह रहे हैं कि वाह! लाभ है, बहुत लाभ है और इससे मन बहुत खुश हो रहा है। परन्तु इससे हुआ यह कि सत्कर्मों की/पुण्यों की पूंजी ही समाप्त हो गयी। इस समाप्त हुई पूंजी को पुनः प्राप्त करने की आवश्यकता है।